Sunday, August 13, 2017

Chanakya Neeti : Part 15 (चाणक्य नीति : भाग 15)


इस अध्याय के प्रारंभ में आचार्य ने दया के महत्व को स्पष्ट किया है । उनका कहना है कि जो व्यक्ति इस संसार के प्राणी मात्र पर दया करता है | उसे ना तो मोक्ष प्राप्त करने के लिए जप तप आदि साधना की आवश्यकता नहीं है और ना ही जटाजूट धारण करके साधु सन्यासी बनने की | दया ही सभी धर्मों का सार है |


गुरु के महत्व को बताते हुए आचार्य चाणक्य बताते हैं कि यदि शिष्य गुरु को अपना सर्वस्व समर्पित कर दे तो भी गुरु का ऋण शिष्य से नहीं उतरता । गुरु ही शिष्य को वास्तु ज्ञान देता है |


दुष्ट व्यक्ति से बचने का उपाय बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि या तो उसे मसल कर नष्ट कर देना चाहिए अथवा ऐसा परिवर्तन करना चाहिए कि वह आपके कार्य में किसी प्रकार की रुकावट ना डाल सके |

चाणक्य का कहना है कि जो व्यक्ति मैले कपड़े पहन कर रहता है, जिसके दांतो पर मैल जमा दिखाई देता है, जो हर समय कड़वी बातें करता रहता है तथा सूर्य उदय और सूर्य अस्त के समय सोया रहता है उसे ना तो लक्ष्मी प्राप्त होती है ना ही उसका स्वास्थ्य ठीक रहता है इसलिए व्यक्ति को अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए प्रकृति के नियमों के अनुसार चलना चाहिए |

आचार्य के अनुसार धन मनुष्य का बंधु और सखा है, इसलिए मनुष्य को धन इकट्ठा करते रहना चाहिए | उनका यह भी कहना है कि धन को धर्म पूर्वक ही कमाना आना चाहिए | अन्याय से पैदा किया हुआ धन 10 वर्षों से ज्यादा नहीं ठहरता |

अनेक विद्वानों का कहना है कि समर्थ व्यक्ति जो कुछ करता है लोग उसके लिए उसे दोषी नहीं ठहराते । असमर्थ द्वारा किया गया अच्छा काम भी दोषयुक्त माना जाता है इसका कारण है भय और स्वार्थ है ना कि सत्य दृष्टि ।

आचार्य ने दान की महिमा का बखान किया है वह कहते हैं कि ब्राह्मणों को भोजन करवाने के बाद ही गृहस्थ को भोजन करना चाहिए | उनके अनुसार प्रेम और स्नेह उसे ही कहा जाता है जो दूसरों से किया जाए | अपने संबंधियों तथा मित्रों आदि से तो सभी प्रेम करते हैं | आचार्य ने बुद्धिमान उसे कहा है जो पाप कर्मों की और आकृष्ट ना हो |

चाणक्य मनुष्य को यह बताना चाहते हैं कि ज्ञान का कोई अंत नहीं है जबकि मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है उनका कहना है कि वह वेद आदि शास्त्रों के पढ़ने पर भी जिसे उनमे  वर्णित आत्मा और परमात्मा का ज्ञान नहीं हुआ उसका जीवन व्यर्थ है उसका जीवन बिल्कुल उसी प्रकार है जैसे धातु की कलछी स्वादिष्ट भोजन पदार्थ में घूमती हुई भी उसका स्वाद नहीं ले पाती |


चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति जब दूसरों के घर में जाता है अर्थात अपना घर छूटता है तो उसे छोटा माना जाता है | चंद्रमा को अमृत का भंडार कहा जाता है परंतु जब सूर्य की सीध में आता है तो एक प्रकार से उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है क्योंकि उस समय वह सूर्य से ही प्रकाश ग्रहण करता है |

चाणक्य ने यह बात स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि ब्राह्मणों के पास धन क्यों नहीं होता | उनका कहना है कि वह सदैव सरस्वती की उपासना में लगे रहते हैं | इसलिए धन इकट्ठा करने की उनकी प्रवृत्ति ही नहीं होती|   चाणक्य उदाहरण देते हुए कहते हैं कि भोरे में इतनी शक्ति होती है कि वह लकड़ियों में भी छेद कर सकता है परंतु कमल के अनुराग में बंध जाने के कारण उसकी शक्ति व्यर्थ हो जाती है | इसी प्रकार मनुष्य के जो स्वाभाविक गुण हैं वह कभी भी समाप्त नहीं होते | जिस प्रकार चंदन का वृक्ष छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दिए जाने पर भी अपनी सुगंध नहीं छोड़ता उसी प्रकाश श्रेष्ठ कुलीन मनुष्य निर्धन होने पर भी अपने गुणों का त्याग नहीं करता |

2 comments:

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