Friday, August 18, 2017

Chanakya Neeti : Part 17 (चाणक्य नीति : भाग 17)



आचार्य चाणक्य का कहना है कि विद्या गुरु से ही प्राप्त करनी चाहिए स्वयं विद्या का अभ्यास करने से वह लाभ नहीं होता जैसा गुरु द्वारा प्राप्त की गई विद्या से होता है |


उनका कहना है कि जो व्यक्ति आपसे जैसा व्यवहार करता है उससे उसी प्रकार का व्यवहार करना चाहिए | जिसने आपके प्रति हिंसा का व्यवहार किया है उसके प्रति हिंसक व्यवहार ही ठीक रहेगा | कुछ महान पुरुष ऐसे भी है जिनका यह कहना था कि हिंसा का उत्तर अहिंसा से दिया जा सकता है | व्यवहार की दृष्टि से एक सामान्य व्यक्ति द्वारा ऐसा कर पाना संभव नहीं हो पाता | ऐसी संत महात्मा की दृष्टि हो सकती है | चाणक्य ने यह सिद्धांत कूटनीति की दृष्टि से बताया है | देश के संदर्भ में तो जैसे को तैसा की नीति ज्यादा उपयुक्त है |

आचार्य ने इस अध्याय में तप के महत्व को भी स्पष्ट किया है | उनका कहना है कि यदि मनुष्य में तप का अभाव है और वह लोभ में फंसा हुआ है तो उसे और किसी बुराई की क्या आवश्यकता है | यदि मनुष्य का स्वभाव दूसरों की निंदा करना है तो चाणक्य इसे महान पापों की श्रेणी में रखते हैं | उन्होंने सत्य को ही तप बताया है अर्थात जो व्यक्ति सत्याचरण करता है उसे किसी अन्य तप की आवश्यकता नहीं है |

चाणक्य ने इस अध्याय में दान का महत्व बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति दान नहीं करता उसे धन की प्राप्ति नहीं हो सकती |

चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जो वास्तविक स्वरुप है उसको ही स्थिर रखना चाहिए | उसे प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के ढोंगी होने की आवश्यकता नहीं है | इसी प्रकार उनका यह कहना पूर्ण रुप से व्यवहारिक है कि इस संसार में जो व्यक्ति शक्ति हीन होता है वह ऐसा प्रकट करने लगता है कि उस से बढ़कर कोई सज्जन नहीं परंतु इस प्रकार के ढोंग को आचार्य चाणक्य नकारते हैं | विवशता में किया जाता रहा कार्य स्वभाव की सत्यता को नहीं दर्शाता |

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि अन्न और जल से बढ़कर कोई श्रेष्ठदान नहीं |भूखे व्यक्ति को सोने चांदी की अपेक्षा भोजन की आवश्यकता होती है |उन्होंने गायत्री को सबसे श्रेष्ठ मंत्र बताया है | उनका यह भी कहना है कि सभी देवी देवताओं में सबसे श्रेष्ठ स्थान माता का है |

 दुष्ट व्यक्ति के संबंध में तो अनेक स्थानों पर उनकी दुष्टता का वर्णन किया गया है | दुर्जन अर्थात दुष्ट व्यक्ति सज्जनों को हर समय दुख देता रहता है उसके शरीर का कोई स्थान ऐसा नहीं जो दुर्जनता से रहित हो उसका संग किसी भी तरह से क्यों न हो हानिकारक होता है |

स्त्री के संबंध में आचार्य चाणक्य का मानना है कि उसका कल्याण पति की सेवा से ही होता है यदि वह पति की सेवा ना करके उपवास दान आदि ही करती रहे तो भी उसका कल्याण नहीं हो सकता | उनके यह विचार व्यवहार की कसौटी पर खरे हैं | पति-पत्नी का यह संबंध गृहस्थ की उन्नति का आधार है | इसी से परिवार में शांति बनी रहती है | दोनों के लिए परिवार ही श्रेष्ठ है |

आचार्य ने यहाँ दान के महत्व को बताया है | यहाँ उन्होंने यह भी कहा है कि व्यक्ति की शोभा दान से ही होती है | साज सिंगार करने से उसकी शोभा नहीं बढ़ती | सज्जनों के संबंध में उनका कहना है कि वह आपत्तियों से इसलिए दूर रहते हैं क्योंकि उनके मन में सर्वसाधारण के प्रति परोपकार करने की भावना रहती है | इससे उनके कष्ट अपने आप दूर हो जाते हैं और उन्हें किसी भी प्रकार की कमी भी नहीं रहती |

सामान्य ग्रहस्थ के लिए आचार्य का कहना है कि यदि उनकी स्त्री पतिव्रता है | कटु भाषण नहीं करती और उसके घर में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं उसकी संतान शालीन और विनय आदि गुणों से युक्त हैं तो उसका घर ही स्वर्ग के समान है |

यह तो सभी जानते हैं कि बहुत सी बातें पशु और मनुष्यों में एक जैसी होती हैं | भेद उनमे केवल धर्म के कारण ही होता है | मनुष्य भी पशुओं के समान खाता-पीता सोता और संतान उत्पन्न करता है यदि उसमें धर्म का अभाव है तो उसका जीवन भी पशु के समान समझा जाना चाहिए बल्कि पशु से भी बदतर क्योंकि पशु प्रकृति के कुछ निश्चित नियमों बंधा हुआ है |

मनुष्य का जीवन अनेक परिस्थितियों से गुजरता है | माता के गर्भ से जन्म लेने के बाद बच्चे के रूप में उसका विकास होता है | किशोर अवस्था के बाद युवावस्था आती है और दिन ढलने के समान मनुष्य का शरीर भी अस्त होने लगता है | उसकी कमर में बल पर जाते हैं | उस स्थिति को देखकर अज्ञानी पुरुष ही उसका उपवास कर सकता है क्योंकि युवा अवस्था के बाद शरीर का दुर्बल होना अवश्यंभावी है | जो युवा वृद्ध का उपवास करते हैं वह मूर्ख है वह भूल जाते हैं कि एक दिन उन्हें भी इस अवस्था को प्राप्त होना है |

आचार्य ने इस अध्याय के अंत में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है |उनका मानना है कि यदि किसी चीज में कोई एसा गुण है जिससे अधिकांश लोगों को लाभ होता है तो उसके अवगुण महत्वहीन हो जाते हैं |प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने में लोगों का उपकार करने के गुणों का विकास करें यदि उसमें लोगों के उपकार करने का गुण है तो उसके अन्य दोषो की ओर किसी का ध्यान नहीं जाएगा | इस विशेष गुण के सामने अन्य अवगुण गौण हो जाएंगे | 

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