Wednesday, July 12, 2017

Chanakya Neeti : Part 4 (चाणक्य नीति : भाग 4)


आचार्य चाणक्य का कहना है कि जीव जब माता के गर्भ में होता है तभी उसकी आयु, कर्म, धन विद्या तथा मृत्यु आदि बाते निश्चित हो जाती हैं अर्थार्थ मनुष्य जन्म के साथ ही निश्चित कर्मों के बंधनों में बंध जाता है इस संसार में आने के बाद सज्जनों के संसर्ग के फलस्वरुप व्यक्ति सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है अच्छे लोगों का साथ हर तरह से मनुष्य की रक्षा के लिए ही होता है |

आचार्य के अनुसार मनुष्य जब तक जीवित है तब तक उसे पुण्य कार्य करने चाहिए क्योंकि इसी से उसका कल्याण होता है और जब मनुष्य देह त्याग देता है तो वह कुछ भी नहीं कर सकता |



विद्या को चाणक्य ने कामधेनु के समान बताया है जिस तरह कामधेनु से सभी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं उसी प्रकार विद्या से मनुष्य अपनी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है विद्या को बुद्धिमानों ने गुप्तधन भी कहा है | आचार्य चाणक्य के अनुसार अनेक मूर्ख पुत्रों के होने की बजाय एक गुणी पुत्र होना अधिक हितकर होता है उनका कहना है कि मूर्ख पुत्र यदि दीर्घायु वाला होता है तो वह आयु भर कष्ट देता रहता है इससे तो अच्छा है कि वह जन्म के साथ ही मर जाए क्योंकि ऐसे पुत्र की मृत्यु से दुख थोड़ी देर के लिए होगा उनका कहना है कि इस संसार में सुख लोगों को अच्छे पुत्र, पतिव्रता स्त्री और सज्जनों से ही शांति प्राप्त होती है सांसारिक नियमों के अनुसार चाणक्य बताते हैं कि राजा एक ही बात को बार बार नहीं कहते पंडित लोग भी मंत्रों को  बार-बार नहीं दोहराते और कन्या का भी एक बार ही दान किया जाता है इसलिए इन कर्मों को करते हुए सावधानी बरतनी चाहिए | 

चाणक्य कहते हैं कि व्यक्ति को तपस्या अकेले ही करनी चाहिए | विद्यार्थी मिलकर पड़े तो उन्हें लाभ होता है इसी प्रकार संगीत खेती आदि में भी सहायकों की आवश्यकता होती है युद्ध के लिए तो जितने अधिक सहायक हो उतने ही अच्छे रहते हैं |

चाणक्य कहते हैं कि उस पत्नी का भरण पोषण करना चाहिए जो पति परायण हो |  जिस मनुष्य के घर में कोई संतान नहीं है घर सूना होता है जिसके कोई रिश्तेदार और बंधु-बांधव नहीं उसके लिए यह संसार ही सुना है गरीब के लिए तो सब कुछ सुना है विद्या की प्राप्ति के लिए अभ्यास करना पड़ता है बिना अभ्यास के विद्या विष के समान होती है जिस प्रकार अपच के समय ग्रहण किया हुआ भोजन विष तुल्य होता है और निर्धन व्यक्ति के लिए सज्जनों की सभा में बैठना मुश्किल होता है उसी प्रकार बूढ़े व्यक्ति के लिए स्त्री संसर्ग विष के समान होता है |


चाणक्य धर्म उसे कहते हैं जिसमें दया आदि हो, गुरु उसे कहते हैं जो विद्वान हो, पत्नी वह होती है जो मधुर भाषाणी हो, बंधु-बांधव वह होते हैं जो प्रेम करें परंतु यदि इनमे यह बातें ना हो अर्थात धर्म दया से हीन हो, गुरु मूर्ख हो, पत्नी क्रोधी स्वभाव की हो और रिश्तेदार बंधु-बांधव प्रेम रहित हो तो उन्हें त्याग देना चाहिए | ज्यादा यात्राएं करने से मनुष्य जल्दी बूढ़ा हो जाता है,  स्त्रियों की काम तुष्टि ना हो तो जल्दी बूढ़ी हो जाती है और कपड़े यदि अधिक देर तक धूप में पड़े रहे तो जल्दी फट जाते हैं |

चाणक्य बताते हैं कि मनुष्य को अपनी उन्नति के लिए चिंतन करते रहना चाहिए | कि किस प्रकार का समय चल रहा है मित्र कौन है और कितने हैं कितनी शक्ति है बराबर किया गया ऐसा चिंता मनुष्य को उन्नति के मार्ग पर ले जाता है इस अध्याय के अंत में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य आदि का देवता अग्नि अर्थार्थ अग्निहोत्र हैं ऋषि-मुनियों को देवता उनके हृदय में रहता है छोटी बुद्धि के लोग मूर्ति को अपना देवता मानते हैं और जो सारे संसार के प्राणियों को एक जैसा मानते हैं उनका देवता सर्वव्यापक सर्व रूप ईश्वर है |

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